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  • सुभाष पालेकर प्राकृतिक खेती
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सुभाष पालेकर प्राकृतिक खेती

किसान आय वृद्धि और उनके दीर्घकालिक कल्याण के लिए प्रदेश सरकार कृतसंकल्प है। यह देश की पहली सरकार बनी है जिसने किसानों की आय को दोगुना करने के लिए माननीय प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी के सपने को साकार करने की दिशा में हिमाचल प्रदेश सरकार ने महत्वपूर्ण कदम उठाते हुए वर्ष 2018 में ‘प्राकृतिक खेती खुशहाल किसान’ योजना की शुरूआत की है। अपने पहले ही बजट में माननीय मुख्यमंत्री श्री जयराम ठाकुर जी के नेतृत्व वाली सरकार ने कृषि-बागवानी में रसायनों के प्रयोग को कम करने के लिए इस योजना के तहत ‘सुभाष पालेकर प्राकृतिक खेती’ विधि को लागू किया है। 25 करोड़ के वित्तीय प्रावधान के साथ शुरू की गई इस योजना ने किसान व बागवानों के व्यापक कल्याण एवं समृद्धि के लिए खेती की लागत को कम करने, आय को बढ़ाने, मानव एवं पर्यावरण पर रसायनिक खेती के पड़ने वाले दुष्प्रभावों से बचाने एवं पर्यावरण व बदलते जलवायु परिवेश के समरूप कृषि का मार्ग प्रशस्त किया है। साढ़े तीन साल पहले शुरू की गई प्राकृतिक खेती खुशहाल किसान योजना के सफल परिणाम देखने को मिल रहे हैं।

"वर्तमान आंकड़ों के अनुसार अभी तक 1 लाख 71 हजार से अधिक किसान-बागवान परिवारों ने इस खेती विधि को पूर्ण या आंशिक भूमि पर अपना लिया है। प्रदेश की 99 प्रतिशत पंचायतों में यह विधि पहुंच बना चुकी है और 1,17,762 बीघा ( 9,421 हैक्टेयर) से अधिक भूमि पर इस विधि से खेती-बागवानी की जा रही है। इस साल योजना के तहत 20 हजार हैक्टेयर भूमि को प्राकृतिक खेती के अधीन लाने का लक्ष्य रखा गया है।"

क्या है प्राकृतिक खेती

प्राकृतिक खेती कृषि-बागवानी की एक ऐसी अवधारणा है जो रसायनों के प्रयोग को हतोत्साहित कर, देसी गाय के गोबर-मूत्र और स्थानीय वनस्पतियों पर आधारित आदानों के प्रयोग का अनुमोदन करती है। कम लागत और पर्यावरण के साथ सद्भभाव बनाकर बेहतर उत्पादन देने वाली यह खेती तकनीक किसान की बाजार पर निर्भरता को कम करती है। इस खेती का मूलमंत्र हैः गांव का पैसा गांव में।
प्राकृतिक खेती के चार स्तंभों- बीजामृत (सूक्ष्म जीवाणुओं द्वारा बीजोपचार), जीवामृत एवं घनजीवामृत (खाद का सर्वोत्तम विकल्प जो लाभदायक जीवाणुओं को बढ़ाता है), आच्छादन (फसल अवशेष से मिट्टी की सतह को ढकना) और वाफ्सा (मिट्टी में हवा और नमी को बरकरार रखना) को अपनाकर किसान खेती लागत को कम कर सकते हैं। इस विधि के तहत फसल विविधिकरण पर जोर दिया जाता है और मुख्य फसल के साथ फसल बढ़वार के लिए भूमि में नाइट्रोजन की उपलब्धता बनाए रखने हेतु दलहनी फसलें लगाने पर बल दिया जाता है। देसी गाय के गोबर और मूत्र पर आधारित विभिन्न आदानों के प्रयोग से देसी केंचुओं की संख्या में वृद्धि कर भूमि की जल धारण करने की शक्ति को बढ़ाया जाता है, जो अंततः भूमि की उर्वरा शक्ति को पुनर्जीवित करता है। फसलों को बीमारियों से बचाने के लिए स्थानीय वनस्पतियों के साथ लहसुन और हरी मिर्च का प्रयोग किया जाता है।