29 जनवरी, 2018 को पालमपुर में हिमाचल प्रदेश सरकार द्वारा प्राकृतिक कृषि परियोजना’ (Zero Budget Natural Farming Project) का शुभारंभ किया। जिसे बाद में बदल कर सुभाष पालेकर प्राकृतिक खेती कर दिया गया
हिमाचल सरकार ने आने वाले दस वर्षों में प्रदेश को समृद्ध और आत्मनिर्भर बनाने के लिए ‘आत्मनिर्भर हिमाचल’ की परिकल्पना की है। किसान कल्याण को प्रमुख रखते हुए ‘समृद्ध किसान, समृद्ध हिमाचल’ को पहले स्थान पर रखा गया है। प्रदेश सरकार ने इस वर्ष बजट में प्राकृतिक खेती में रोजगार को बढ़ावा देने और किसानों की आय को बढ़ाने के लिए 680 करोड़ रूपये की राजीव गांधी स्टार्ट-अप योजना के तीसरे चरण में एक नई योजना ‘राजीव गांधी प्राकृतिक खेती स्टार्ट-अप योजना’ की शुरूआत की है। इसके अलावा प्रदेश सरकार ने प्राकृतिक खेती करने वाले किसानों के उत्पादों को प्राथमिकता के आधार पर खरीदने के साथ पूरे देश में गेंहूं और मक्का के लिए सबसे अधिक 40 और 30 रूपये का समर्थन मूल्य तय किया है। इसके तहत प्रत्येक प्राकृतिक खेती किसान परिवार से 20 क्विंटल तक अनाज खरीदा जाएगा। इतना ही नहीं प्राकृतिक खेती उत्पादों को बाजार मुहैया करवाने और उनके विपणन के लिए इस वर्ष 10 नए किसान-उत्पादक संघ बनाए जाएंगे जिसका कार्य प्रगति पर है।
हिमाचल की देखा देखी देश के बाकी राज्य भी प्राकृतिक खेती अपना रहे हैं। नीति आयोग ने भी देशभर में प्राकृतिक खेती के क्रियान्वयन हेतू हिमाचल प्रदेश के मॉडल को आधार बनाते हुए “प्राकृतिक खेती पर राष्ट्रीय मिशन” (NMNF) की शुरूआत की है। हिमाचल जैसे छोटे राज्य के लिए यह गर्व का विषय है कि देशभर से कृषि वैज्ञानिक, शोधार्थी, पर्यटक, किसान और कृषि अधिकारी प्राकृतिक खेती की विस्तृत जानकारी के लिए हिमाचल में स्थापित मॉडलों पर भ्रमण कर रहे हैं। इसके अलावा केंद्रीय बजट में भी प्राकृतिक खेती को लेकर बड़ी घोषणाएं की गई हैं जिसका लाभ प्रदेश के प्राकृतिक खेती किसानों को भी मिलेगा।
किसान आय वृद्धि और उनके दीर्घकालिक कल्याण के लिए प्रदेश सरकार कृतसंकल्प है। यह देश की पहली सरकार बनी है जिसने किसानों की आय को दोगुना करने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम उठाते हुए वर्ष 2018 में ‘प्राकृतिक खेती खुशहाल किसान’ योजना की शुरूआत की है। राज्य सरकार ने कृषि-बागवानी में रसायनों के प्रयोग को कम करने के लिए इस योजना के तहत ‘सुभाष पालेकर प्राकृतिक खेती’ विधि को लागू किया है।
प्राकृतिक खेती खुशहाल किसान योजना ने किसान व बागवानों के व्यापक कल्याण एवं समृद्धि के लिए खेती की लागत को कम करने, आय को बढ़ाने, मानव एवं पर्यावरण पर रसायनिक खेती के पड़ने वाले दुष्प्रभावों से बचाने एवं पर्यावरण व बदलते जलवायु परिवेश के समरूप कृषि का मार्ग प्रशस्त किया है। 6 साल पहले शुरू की गई ‘प्राकृतिक खेती खुशहाल किसान’ योजना के सफल परिणाम देखने को मिल रहे हैं।
प्रदेश के माननीय मुख्यमंत्री श्री सुखविंदर सिंह सुक्खू जी ने प्राकृतिक खेती पर विशेष बल देते हुए वित्तीय वर्ष 2024-25 के लिए 15 करोड़ रूपए के बजट का प्रावधान किया है।
प्रदेश के सभी कृषि जलवायु क्षेत्रों में किसान-बागवान विविध फसलों व फलों को प्राकृतिक खेती से सफलतापूर्वक उगा रहे हैं। किसान समुदाय के बीच इस विधि की बढ़ती स्वीकार्यता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि राज्य की 3584 पंचायतों में 1,94,285 किसान 34,342 हैक्टेयर भूमि में प्राकृतिक से विविध फसलें ले रहे हैं।
कृषि एवं बागवानी में बेहतर पैदावार पाने के लिए मंहगे खरपतवारों और कीटनाशकों के प्रयोग से कृषि लागत में बेतहाशा बढ़ोत्तरी हो रही है। कृषि लागत बढने के साथ किसानों की आय घटती जा रही है। जिसके चलते लाखों किसान खेती-बाड़ी को छोड़कर शहरों की तरफ रोजगार पाने के लिए रूख कर रहे हैं। कृषि-बागवानी में रसायनों और कीटनाशकों का प्रयोग बढ़ने से मानव स्वास्थ्य के साथ पर्यावरण पर भी विपरीत असर पड़ रहा है। किसानों में खेती-बाड़ी के प्रति रुचि को बढ़ाने और कृषि लागत को कम कर उनकी आर्थिक स्थिति को बढ़ाने के लिए हिमाचल प्रदेश सरकार ने प्राकृतिक खेती खुशहाल किसान योजना को लागू कर एक क्रांतिकारी कदम उठाया है। 9 मार्च 2018 को हिमाचल सरकार द्वारा इस योजना की घोषणा अपने बजट भाषण में की और इसके लिए 25 करोड़ का बजट प्रावधान भी किया गया। योजना को लागू करने के लिए महाराष्ट्र के कृषि वैज्ञानिक सुभाष पालेकर की कृषि विधि को प्रदेश के हर एक किसान तक पहुंचाने के लिए उनके नाम से 14 मई 2018 को सुभाष पालेकर प्राकृतिक खेती पद्धति को प्रदेश में शुरु है। इसे लागू करने के साथ ही हिमाचल प्रदेश प्राकृतिक खेती को अपनाने वाला दूसरा राज्य बन गया है। इससे पहले आंध्र प्रदेश में जीरो बजट नेचुरल फार्मिंग को शुरु किया गया है। गौर रहे कि कृषि बागवानी एवं इससे संबद्ध क्षेत्र हिमाचल प्रदेश की सकल घरेलू आय में 10 प्रतिशत का योगदान एवं 69 प्रतिशत जनसंख्या को रोजगार प्रदान कर रहे हैं। प्रदेश में कुल 9.61 लाख किसान परिवार 9.55 लाख हैक्टेयर भूमि पर खेती कर रहे हैं, जिसमें केवल 18 फिसदी ही सिंचित क्षेत्र है। ऐसे में सरकार ने प्रदेश के सभी किसानों को वर्ष 2022 तक प्राकृतिक खेती से जोड़ने का लक्ष्य रखा है ताकि किसानों की आय बढने के साथ प्रदेश की सकल घरेलू आय में भी बढ़ोत्तरी हो सके।
इस समय हिमाचल प्रदेश में 2547 किसानों ने 240 हैक्टेयर भूमि पर प्राकृतिक खेती पद्धति के तहत खेती-बाड़ी शुरु कर दी है और इन किसानों की ओर से पैदा किए जा रहे खाद्य उप्तादों को मार्केट में सही दाम मिल रहे हैं। जिससे अन्य किसानों की रुचि भी प्राकृतिक खेती की ओर बढ़ रही है। सुभाष पालेकर प्राकृतिक खेती को प्रदेश में शुरु करने से पहले सरकार ने इस खेती पद्धति के जन्मदाता सुभाष पालेकर के दो मेगा ट्रेनिंग प्रोग्राम करवाए हैं। इनमें मेगा ट्रेनिंग प्रोग्राम में 1563 किसानों को प्रशिक्षण दिया गया है। इसके अलावा किसानों, और कृषि विभाग के अधिकारियों को फिल्ड में प्रैक्टिकल नाॅलेज देने के लिए झांसी और कुरूक्षेत्र का दौरा भी करवाया गया है। किसानों को इस पद्धति के बारे में जागरुक करने के लिए सभी विकास खंडों की 3226 पंचायतों में एक दिवसीय जागरुकता कार्यक्रम का आयोजन किया गया, जिसमें 8417 किसानों ने प्राकृतिक खेती के बारे में जानकारी प्राप्त की। इसी तरह प्रदेश के विभिन्न क्षेत्रों में किसानों को जागरुक करने के लिए अनेक कार्यक्रम चलाए गए हैं जिनके तहत अभी तक 18 हजार से अधिक किसानों को सुभाष पालेकर प्राकृतिक खेती के बारे में जागरुक किया गया है। सरकार ने वर्ष 2018 के लिए 500 किसानों को प्राकृतिक कृषि के तहत लाने का लक्ष्य रखा था, जिसे पूरा करते हुए कृषि विभाग ने 2047 किसानों को इससे जोड़ दिया है जबकि वर्ष 2019 में 50 हजार किसानों को प्राकृतिक खेती से जोड़ने का लक्ष्य रखा है।
सुभाष पालेकर प्राकृतिक खेती को अपनाने वाले किसानों को सरकार अनेक सुविधाएँ देगी। हिमाचल प्रदेश के राज्यपाल आचार्य देवव्रत की ओर से सराहनीय पहल शुरु की गई है। राज्यपाल का कहना है कि इस योजना से जुड़ने वाले किसानों को देसी नस्ल की गाय खरीदने के लिए 25 हजार की राशि दी जाएगी। इसके अलावा गौशाला के नालीकरण, खेती में प्रयोग होने वाले घनजीवामृत, जीवामृत को तैयार करने के लिए ड्रम दिए जा रहे हैं। किसानों के उप्तादों को बेचने के लिए ब्लॉक स्तर पर दुकान मुहैया करवाने की योजना पर भी काम किया जा रहा है। इसके अलावा इस योजना से जुड़ने वाले किसानों के लिए प्रशिक्षण और एक्सपोजर विजिट का आयोजन भी समय-समय पर किया जाएगा।
प्राकृतिक खेती पद्धति के जनक सुभाष पालेकर महाराष्ट्र में पिछले दो दशकों से कृषि में बिना किसी रसायनिक खादों और कीटनाशक के खेती कर रहे हैं। इन्होंने खेती की प्राकृतिक पद्धति को इजात किया है जिसमें देसी नस्ल की गाय के गोबर और गोमूत्र के प्रयोग खेती में प्रयोग होने वाले जीवामृत, घनजीवामृत, बीजामृत और कीट-पतंगों और बीमारियों से खेती को बचाए रखने के लिए दवाईयों को तैयार किया जाता है। सुभाष पालेकर की प्राकृतिक खेती पद्धति में बाजार से कुछ भी सामान को लाने की आवश्यक्ता नहीं होती है जिससे कृषि में लागत शून्य के बराबर होती है। कृषि के क्षेत्र में की गई इस बेहतरीन खोज को देखते हुए भारत सरकार ने वर्ष 2016 में सुभाष पालेकर को पदमश्री अवार्ड से नवाजा है। इतना ही नहीं सुभाष पालेकर की खेती पद्धति को यूनाइटेड नेशन में भी सराहना प्राप्त हो चुकी है।
प्राकृतिक खेती को कई लोग जैविक खेती के साथ जोड़कर देख रहे हैं जो कि गलत है। प्राकृतिक खेती कई मायनों में जैविक खेती से अलग है। जैविक खेती में गाय के गोबर का प्रयोग खाद के रूप में किया जाता है, इसमें भारी मात्रा में गाय के गोबर का प्रयोग किया जाता है। जबकि प्राकृतिक खेती में देसी गाय के गोबर का प्रयोग जैविक खाद के मुकाबले में नाम मात्र का किया जाता है। जैविक खेती पद्धति में देखा गया है कि जो किसान इसे शुरु करते हैं तो शुरुआत के कुछ वर्षाें में उप्तादन में कमी देखी जाती है। जबकि प्राकृतिक खेती में पहले ही वर्ष में उप्तादन में बढ़ोत्तरी देखी गई है और साल दर साल मिट्टी की उर्वरा क्षमता बढने के साथ उप्तादन में भी बढ़ोत्तरी होती रही है। जैविक खेती को भी रसायनिक खेती की तरह बहुत खर्चीला माना गया है, जबकि प्राकृतिक खेती में देसी गाय के गोबर और गोमूत्र व कुछ घरेलू सामग्री के प्रयोग से ही खेती को किया जाता है। ऐसे में कृषि की लागत शून्य के बराबर रहती है।
आज खादों एवं अन्य रासायनों के अंधाधुंध प्रयोग से किसानों की साख आम-उपभोक्ता बाजार में घटी है। स्वास्थ्य के प्रति संवेदनशील उपभोक्ताओं में यद्यपि सामान्य खाद्यान के अतिरिक्त फल सब्जियों की मांग बढी है, लेकिन रासायन दूषित होने के संदेह के कारण भयभीत हैं। पीजीआई चंडीगढ और ब्लूमबर्ग जन स्वास्थ्य स्कूल अमेरिका के एक संयुक्त अनुसंधान में पंजाब के कपास बहुल खेती वाले ग्रामीण इलाकों के 23 प्रतिशत किसानों के खून एव पेशाब में विभिन्न किटनाशकों के अंश मिले हैं। इसका डिप्रेशन, उच्च रक्तचाप, घबराहट, थकान, अनिद्रा, बेहोशी इत्यादि बीमारियों से सीधा सम्बंध है। ऐसे समय में जैविक कृषि उप्ताद से एक आशा जगी थी लेकिन हाल ही में कुछ वैज्ञानिक अध्ययन तथा तथ्य इसे नकार रहे हैं। जैविक खेती गोबर के अधिकतम प्रयोग एवं वर्मी कंपोस्ट आधारित है। खेती में जब गोबर का हम अधिकतम प्रयोग करते हैं तो सूर्य की रोशनी एवं सामान्य तापमान जब 20 डिग्री सेल्सीयस से ऊपर जाता है तो यह पर्यावरण में विभिन्न जहरीली गैसें जैसे कार्बन मोनो डाइआक्साइड, कार्बन मोनो आक्साइड और मिथेन इत्यादि का उत्सर्जन कर मौसम बदलाव में सक्रिय भूमिका निभाती हैं। इसे देखते हुए अब कृषि के क्षेत्र में लोगों को बेहतर खाद्यान मुहैया करवाने के लिए प्राकृतिक खेती ही एकमात्र विकल्प है।
किसानों को प्राकृतिक खेती से जोड़ने के लिए ब्लॉक स्तर पर 2 संवेदीकरण कार्यक्रम किए जाएंगे जिनमें प्रति कार्यक्रम 150 किसानों को प्राकृतिक खेती से जोड़ा जाएगा। इसके अतिरिक्त गांव स्तर पर किसानों को प्राकृतिक खेती में प्रशिक्षित करने के लिए 1232 दो दिवसीय प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित किए जाएंगे। प्राकृतिक खेती से जुड़े पुराने किसानों को पुनः 1 दिन का प्रशिक्षण दिया जाएगा। प्रदेश के हर ब्लॉक में 1 रिफ्रेशर ट्रेनिंग के जरिए 30 किसानों को पुनः प्रशिक्षित किया जाएगा। किसानों को इस विधि से जोड़ने में भ्रमण कार्यक्रमों की अहम भूमिका है जिनके जरिए किसानों को प्राकृतिक खेती के उत्कृष्ट मॉडल दिखाए जाते हैं। इस वर्ष हर जिला को 4 भ्रमण कार्यक्रम आयोजित करने का लक्ष्य निर्धारित किया गया है। विभाग द्वारा प्राकृतिक खेती आधारित 120 प्रदर्शन मॉडल भी विकसित किए जाएंगे। इसके अतिरिक्त हर पंचायत में एक उत्कृष्ट मॉडल खड़ा करने के साथ प्रदेश के 200 गांवों को प्राकृतिक खेती गांव में परिवर्तित किया जाएगा।
वित्तीय वर्ष 2024-25 में हर पंचायत में 10 नए किसानों को जोड़ते हुए कुल 36,000 नए किसानों को इस विधि से जोड़ा जाएगा और उन्हें CETARA-NF पोर्टल (www.spnfhp.in) के माध्यम से प्राकृतिक खेती में प्रमाणीकृत किया जाएगा। साथ ही 6160 हैक्टेयर भूमि को प्राकृतिक खेती के अधीन लाया जाएगा। किसानों को सशक्त करने और उनके उत्पादों की बेहतर मार्केटिंग के लिए 10 नए किसान-उत्पादक संघ बनाए जाएंगे।
सब्जियाँ उगाकर परिवार का भरण-पोषण करने वाली शोभा देवी के परिवार के लोग जब आए दिन बीमार रहने लगे तो उन्होंने खेतों में प्रयोग होने वाले रसायनों को बंद करने का फैसला लिया। शोभा देवी बताती हैं कि सब्जियों में अच्छी पैदावार और कीटों से रक्षा के लिए वे इसमें जमकर खादों और कीटनाशकों का प्रयोग करते थे। जिसका असर परिवार वालों की सेहत पर होने लगा था। इसलिए परिवार और लोगों के स्वास्थ्य को स्वस्थ रखने के लिए उन्होंने जैविक खेती करना शुरु किया। लेकिन जैविक खेती में अधिक मात्रा में खाद और इसके मंहगे होने के साथ इसमें उप्तादन कम हो गया। इसके बाद उन्होंने सुभाष पालेकर प्राकृतिक खेती का प्रशिक्षण इसके जन्मदाता सुभाष पालेकर से पालमपुर विश्वविद्यालय से लिया और अब वे अपनी 4 कनाल भूमि में प्राकृतिक खेती विधि से खेती कर रही हैं और हर साल लाखों की आय कमा रही हैं। शोभा देवी बताती हैं इस खेती विधि के पहले ही साल में उनके उत्पादन में किसी प्रकार की कमी नहीं आई है। वे बताती हैं कि जहां पहले रसायनों और खादों के लिए हजारों रुपए खर्च करने पड़ते थे वे भी बच रहे हैं साथ ही जहरमुक्त होने के चलते बाजार में उनकी सब्जियाँ जल्दी और अच्छे दामों में बिक रही हैं। शोभा देवी का नाम अब कांगड़ा जिले के सफल किसानों की सूची में शामिल हो चुका है और अब वे जिले और प्रदेश भर में होने वाले किसान मेलों में अपने उत्पादों की प्रदर्शनी भी लगा रही हैं। शोभा देवी से प्रेरणा पाकर प्रदेश के कई किसान सुभाष पालेकर प्राकृतिक खेती की ओर आकर्षित हुए हैं ओर वे इसे अपना भी रहे हैं।
मनजीत के फार्म को देखने के लिए आ रहे पास के जिलों के लोग एक तरफ जहां किसानों में खेती से मोहभंग होता जा रहा है, वहीं कुछ ऐसे लोग भी हैं जो जमी-जमाई लाखों की नौकरी को छोड़ खेती-बाड़ी में आधुनिक उपकरणों का प्रयोग कर लाखों की कमाई कर रहे हैं। कुछ ऐसा ही कर दिखाया है उना जिले के मनजीत सिंह ने। एमटेक तक पढे मनजीत सिंह इन प्राकृतिक खेती कर रहे हैं और हर महीने अच्छी आमदनी कर रहे हैं। मनजीत ने सुभाष पालेकर प्राकृतिक खेती पद्धति को अपनाकर जहां कृषि की लागत को कम कर मुनाफे को बढ़ाया है वहीं दूसरी ओर खेती का न्यू ट्रेंड लाकर अन्य किसानों को भी खेती-बाड़ी के लिए प्रेरित किया है। मनजीत के खेती माडल को देखने के लिए आस पास के गांव के युवा भी उनके फार्म की ओर रूख कर रहे हैं।
प्राकृतिक खेती पद्धति को शुरु करने वाले मनजीत के मन में भी अन्य किसानों की तरह कई सवाल थे, लेकिन कुछ नया करने की चाह और सही प्रशिक्षण के दम पर अब वे सूबे के किसानों में एक उदाहरण के तौर पर उभरे हैं। मनजीत सिंह ने बताया कि जब-जब वे नौकरी से अपने गांव सिहाणा वापस आते थे, तो गांव में केवल बुजुर्ग ही देखकर उन्हें बहुत दुख होता था। इसलिए उन्होंने नौकरी छोड़कर खेती-बाड़ी को अपनाने का मन बनाया और अपने खेतों में खेती करना शुरु कर दिया। लाखों की नौकरी छोड़ने के बाद उन्होंने गांव वालों के ताने तो सुनने को मिले ही साथ में घरवालों के विरोध का भी सामना करना पड़ा। लेकिन पक्का इरादा होने के चलते मनजीत ने कृषि विभाग की ओर से चलाई जा रही कृषि योजनांओं की जानकारी लेकर पाॅलीहाउस में प्राकृतिक खेती शुरु कर दी। प्राकृतिक खेती शुरु करने से पहले उन्होंने इस पद्धति के जनक पदमश्री सुभाष पालेकर से एक सप्ताह का प्रशिक्षण प्राप्त किया। प्रशिक्षण प्राप्त करने के तुरंत बाद उन्होंने अपने पॉली हाउस में टमाटर, मटर, हरा धनिया, गोभी, शिमला मिर्च और ब्रोकली की खेती की शुरुआत कर दी। मनजीत बताते हैं कि शुरुआत के दिनों में ही उन्हें अच्छे परिणाम देखने को मिले और इस पद्धति में लागत कम होने के चलते उनके मुनाफे में कई गुणा बढ़ोत्तरी हुई है।
स्वास्थ्य पर नहीं कोई असर
मनजीत ने बताया कि प्राकृतिक खेती से उनके स्वास्थ्य को किसी प्रकार का नुकसान नहीं पहुंच रहा है। जबकि पहले वे जब वे सब्जियों को खरपतवारों और कीटों से बचाने के लिए मंहगे कीटनाशकों का प्रयोग करते थे, तो उनके सिर में तेज दर्द हुआ करता था। उन्होनें बताया कि कीटनाशकों के प्रयोग करने के बाद दो दिन तक सिर दर्द के साथ सिर चकराना और उल्टी आती थी। लेकिन अब प्राकृतिक खेती को अपनाने के बाद सब्जियों में अपने आप तैयार किए कीटनाशकों के छिड़काव से स्वास्थ्य में किसी प्रकार का असर नहीं पड़ रहा है। मनजीत ने बताया कि प्राकृतिक खेती न सिर्फ खेती करने वाले किसानों का स्वास्थ्य सही रह रहा बल्की इससे उपभोक्ताओं को जहरमुक्त खाद्य सामग्री भी मिल रही है। वहीं इससे मिट्टी के स्वास्थ्य में भी सुधार हो रहा है। मनजीत बताते हैं कि खेतों में जीवामृत और घनजीवामृत डालने से मिटृटी भूरभूरी हो रही है और खेतों में सिंचाई के माध्यम से दी जाने वाली हरेक बूंद अब धरती में जा रही है। जबकि खाद और रसायनों के प्रयोग से मिट्टी के ऊपर एक पपड़ी जैसी तैयार हो जाती थी, जिससे सिंचाई के दौरान पानी धरती में न रिस कर बह जाता था।
बाजार में मिल रहे सही दाम
मनजीत सिंह ने बताया कि उन्हें अपनी उगाई हुई सब्जियों को बाजार ले जाने की जरूरत भी नहीं पड़ रही है, लोग उनके फार्म में आकर ही सब्जियाँ खरीद कर चले जाते हैं। उन्होंने बताया कि उन्होंने कुछ और किसानों को भी प्राकृतिक खेती के लिए प्रेरित किया है और अब भविष्य में वे उनके साथ मिलकर उना के बंगाणा ब्लॉक में प्राकृतिक उप्तादों की एक दुकान शुरु करेंगे ताकि ज्यादा से ज्यादा लोगों तक प्राकृतिक उत्पाद पहुंच सके। वहीं प्रदेश सरकार की ओर से भी सुभाष पालेकर प्राकृतिक खेती को अपनाने वाले किसानों के खाद्य उत्पादों को बाजार मुहैया करवाने के लिए कार्य किया जा रहा है। सरकार की ओर से ब्लॉक स्तर पर प्राकृतिक खेती संसाधन भंडार खोलने की दिशा में काम किया जा रहा है। मनजीत बताते हैं कि जब उन्होंने यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर की नौकरी छोड़ी थी जो उन्हें पांच लाख रुपए का सालाना पैकेज मिल रहा था और नौकरी छोड़ने पर लोगों ने उन्हें कई बातें कही थी लेकिन आज खेती करते वक़्त उन्हें किसी तरह का पछतावा नहीं है और वे अपने सालाना पैकेज से काफी बेहतर कमा रहे हैं।
पढ़ाई के बाद कुछ दोस्तों के साथ शुरु की सब्जियों की खेती अब लाखों कमा रहे। ग्रेजुएशन करने के बाद संजय के ज्यादातर दोस्तों में से कुछ तो नौकरी करने के लिए शहर चले गए और कुछ आगे की पढ़ाई करने के लिए चंडीगढ या शिमला की ओर रूख कर गए। ऐसे में सोलन जिला के कुनिहार क्षेत्र के संजय कुमार ने कृषि को व्यवसाय के तौर पर लिया और गांव में अपने पुरखों की जमीन पर पुराने ढर्रे पर चल रही खेती को बदलकर आधुनिक खेती करने का निर्णय लिया। संजय के इस फैसले का उनके परिवार वालों ने कड़ा विरोध किया और उन्हें नौकरी करने और पढ़ाई जारी रखने के लिए कई बार कहा। लेकिन संजय ने अपने घरवालों से लड़कर खेती बाडी शुरु की और तब से लेकर आज तक कभी भी पिछे मुडकर नहीं देखा। आज संजय कुमार अपने खेतों में हर साल लाखों की सब्जियाँ उगा रहे हैं और अपने जिले के साथ प्रदेश के नामी किसानों की सूची में शामिल हो गए हैं। संजय कुमार बताते हैं कि उन्होंने सुभाष पालेकर प्राकृतिक खेती को अपनाकर कृषि लागत को कम किया है और इससे उनके मुनाफे में बढ़ोत्तरी हुई है। वे बताते हैं कि वे कृषि के क्षेत्र में हो रहे बदलावों और आए दिन आ रही नए तकनीक को अपनाने में कभी भी संकोच नहीं करते हैं। वे बताते हैं कि एक साल पहले तक वे रसायनिक खेती कर रहे थे और अपने खेतों में अच्छी पैदावार के लिए जमकर रासायनिक खाद और कीटनाशकों का प्रयोग करते थे। इससे उनकी कृषि लागत में हर साल बढ़ोत्तरी हो रही थी जबकि मुनाफा कुछ थम सा गया था। इसी के चलते उन्होंने प्राकृतिक खेती को अपनाया और इसे अपनाने के साथ अब इस साल उनकी कृषि लागत नाम मात्र की रह गई है। सफल किसान के नाम से पहचाने जाने वाले संजय कुमार को अब प्राकृतिक खेती शुरु करने वाले किसान के नाम से भी जाना जाने लगा है। उनके खेती मॉडल को देखने और सीखने के लिए कई किसान उनके पास आ रहे हैं। इतना ही नहीं हिमाचल प्रदेश कृषि विभाग भी अन्य किसानों को संजय कुमार के खेतों में ले जाकर प्राकृतिक खेती के बारे में लोगों को जागरुक कर रहा है।
प्राकृतिक खेती में देसी नस्ल की गाय की जरूरत को पूरा करने के लिए संजय पंजाब से साहिवाल नस्ल की गाय खरीदकर लाए हैं। संजय का कहना है कि जब प्राकृतिक खेती करनी ही है तो फिर इसे पूरे तन-मन से किया जाना चाहिए। खेतों में प्रयोग होने वाले जीवामृत बीजामृत घनजीवामृत और कीटनाशकों को तैयार करने में देसी गाय के गोबर और गोमूत्र की जरूरत रहती है। इसलिए इस जरूरत को पूरा करने के लिए मैनें 60 हजार रुपए खर्च कर साहिवाल नस्ल की गाय खरीदी है। इससे मुझे खेती-बाड़ी के लिए गोबर और गोमूत्र तो मिल ही रहा है साथ में यह दूध भी अच्छा देती है जिससे घर में दूध की जरूरत भी पूरी हो रही है। संजय बताते हैं कि उन्होंने अपने साथ कुछ अन्य किसानों को भी जोड़ा है। वे इन किसानों को अपनी गाय का गोबर और गोमूत्र देने के साथ उन्हें समय-समय पर खेती से सबंधित जरूरी जानकारियाँ भी देते रहते हैं। संजय का कहना है कि अब उन्होंने अपने दोस्तों के साथ एक समूह बनाया है और यह समूह अपने खेतों में पैदा होने वाली सब्जियों को बाजार में अपने तय किए हुए दामों में बेचते हैं। उन्होंने बताया कि उनकी सब्जियों को बाजार में प्राकृतिक उत्पाद होने के नाते सही दाम मिल रहे हैं, जिसे देखकर अन्य किसान भी प्राकृतिक खेती को अपनाने लगे हैं।